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आप्पति पण अशी येवो की त्याचाही इतराना हेवा वाटावा , व्यक्तीचा कस लागावा.
पडून पड़ायचच तर ठेच लागून पडू नये ...चांगले दोन हज़ार फूटावरुण पड़ाव , माणूस किती उंचावर पोहोचला होता हे तरी जगाला समजेल.
----------------------------------------------------------------------------Identity cards सारखी विनोदी गोष्ट साऱ्या जगात नसेल. आपण आहोत कसे ? हे खरे त्याना हवे असते ....त्याएवजी आपण दिसतो कसे ते पाहून ते आपल्याला ओळखतात.
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पावसातून भटकताना अंगावरचा शर्ट भिजतो तेवा काही वाटत नाही, तो अंगावरच हलू हलू सुकतो तेवा त्याचेही काही वाटत नाही , सुकला नाही तर ओल्याची सवय होते , पण म्हणून कोणी ओलाच शर्ट अंगात घाल म्हटले तर कस वाटत ??
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प्रश्नापासून नेहमीच पळता येत नाही. कधी ना कधी ते पळनारयाला गाठाताच. पळवाट मुक्कामाला पोहोचवत नाही...मुक्कामाला पोहोचवतात ते सरळ रस्ते.
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सगले कागद सारखेच, त्याला अहंकार चिकटला की त्याचे certifcate होते.
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परिजताकाचे आयुष्य लाभले तरी चालेल , पण लयलूट करायची ती सुगंधाचिच....
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शस्त्रक्रिया होण्यापूर्वी रोगी घाबरलेला असतो , त्यातून तो बरा झाला की शिवलेली ज़खम तोच कोत्तुकाने दाखवत सुटतो.
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जालायाला कही नसले की पेटलेली काड़ीही आपोआप विझते.
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खर्च झाल्याच दुःख नसत ....हिशेब लागला नाही की त्रास होतो.
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आठवणी ह्या मुन्ग्यांच्या वारूलाप्रमाने असतात. वारूलात पाहून आत किती मुंग्या असतील ह्याचा अदमास होत नाही, पण एक मुन्गिने बाहेरचा रस्ता धरला की एकामागोमाग एक अश्या अशन्क्य मुंग्या बाहेर पडतात ....आठवनिंच ही तसेच आहे.
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एकमेकांच्या (नवरा - बायको) कर्तुत्वाचे प्रान्त एकमेकाना अनभिज्ञानच हवेत. तरच एकमेकांच्या कर्ताबगारिच कौतुक टिकत- 'त्यात काय आहे , हे मी पण करीन' - इथ अर्पण भाव संपला , स्पर्धा आली. कौतुक संपल , तुलना आली . साथ संपली , स्वत्वाची जाणीव आली.
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